• कई सवाल उठाती है मुफ्त खाद्यान्न योजना

    सरकार ने घोषणा की है कि वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत वितरित किए जाने वाले सभी खाद्यान्नों का वितरण एक साल के लिए पूरी तरह से मुफ्त कर रही है

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    - डॉ. अजीत रानाडे

    पीडीएस का विस्तार भी जारी रहा क्योंकि यह गरीबों की आवश्यकताओं का ध्यान रखती थी। 1992 और फिर 1997 में देश के पिछड़े जिलों पर बेहतर तरीके से ध्यान देने के लिए इसे नया रूप दिया गया। हालांकि यह स्पष्ट था कि बड़ी मात्रा में सरकारी खरीद तथा पीडीएस के बावजूद यह बेहतर वितरण एवं उत्तम पोषण योजना का स्वरूप नहीं ले पा रही थी। योजना में गड़बड़ी होने की बातें भी सामने आईं। राशन की दुकानों से सस्ता अनाज चोरी (गायब) हो जाता था।

    सरकार ने घोषणा की है कि वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत वितरित किए जाने वाले सभी खाद्यान्नों का वितरण एक साल के लिए पूरी तरह से मुफ्त कर रही है। इससे करीब 81 करोड़ लोग लाभान्वित होंगे। हर व्यक्ति को प्रति माह 5 किलो चावल या गेहूं अथवा मोटा अनाज मुफ्त मिलेगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली 60 वर्ष पुरानी है जो मुख्य रूप से गरीबों के लिए शुरू की गई है। यह रियायती दरों (सब्सिडी की कीमतों) पर खाद्यान्न बेचता है। इसे देश भर में राशन की दुकानों के नेटवर्क के रूप में समझा जाता है। 'राशन' शब्द का अर्थ है एक दुर्लभ वस्तु को छोटे हिस्सों में आबंटित करना ताकि हर किसी को कुछ मिल सके।

    1960 के दशक की शुरुआत तक भारत में भोजन की भारी कमी थी और उसे पश्चिमी देशों के सामने कटोरा फैलाना पड़ता था। कमी का मतलब था कि खाद्यान्न मूल्य मुद्रास्फीति आसमान छू सकती है। इसके बाद पीडीएस और राशन की दुकानें आईं। सरकार ने फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) योजना भी लागू की। इसके साथ ही अनाज का घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए एक बड़ी और सुनिश्चित खरीद योजना भी शुरू की। इसके बाद हरित क्रांति आई जो मूल रूप से पंजाब और हरियाणा में हुई थी। इसके कारण भारत खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया। यहां तक कि देश ने गेहूं और चावल का निर्यात भी शुरू कर दिया।

    वैसे पीडीएस का विस्तार भी जारी रहा क्योंकि यह गरीबों की आवश्यकताओं का ध्यान रखती थी। 1992 और फिर 1997 में देश के पिछड़े जिलों पर बेहतर तरीके से ध्यान देने के लिए इसे नया रूप दिया गया। हालांकि यह स्पष्ट था कि बड़ी मात्रा में सरकारी खरीद तथा पीडीएस के बावजूद यह बेहतर वितरण एवं उत्तम पोषण योजना का स्वरूप नहीं ले पा रही थी। योजना में गड़बड़ी होने की बातें भी सामने आईं। राशन की दुकानों से सस्ता अनाज चोरी (गायब) हो जाता था। लाभ के लिए खुले बाजार में अनाज बेचे जाने के मामले भी सामने आए।

    राशन की दुकानों पर कतार में लगे गरीब लोगों को अक्सर बताया जाता था कि स्टॉक खत्म हो गया है, अगले हफ्ते आओ या अगले महीने आने के लिए कहा जाता था। लंबी कतारों में देर तक खड़े रहने तथा बाद में वापस भेजे गए असहाय गरीब को कोई कानूनी सहारा नहीं था। राशन की जिन दुकानों का स्टॉक गायब हो जाता था उन पर और सरकार पर कोई जुर्माना नहीं था। यह पृष्ठभूमि थी 2013 के आए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) की, जिसे भोजन का अधिकार भी कहा जाता है। इसे संवैधानिक गारंटी के रूप में पारित किया गया था और एक दशक तक चले लंबे आंदोलन व सुप्रीम कोर्ट में चली लंबी लड़ाई के बाद यह सफलता मिली।

    आंदोलनकारी कार्यकर्ताओं का कहना था कि सरकारी अन्न भंडारों में खाद्यान्नों के पहाड़ होने के बावजूद देश में अभी भी व्यापक भुखमरी तथा कुपोषण है। इसलिए सरकार पर सब्सिडी के माध्यम से भोजन प्रदान करने का कानूनी दायित्व डालकर पीडीएस तंत्र को एनएफएसए के जरिए मजबूत किया गया था। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत तीन चौथाई ग्रामीण परिवारों और आधे शहरी परिवारों को तीन, दो और एक रुपये प्रति किलो की दर से क्रमश: चावल, गेहूं तथा मोटा अनाज देने की व्यवस्था की गई। एनएफएसए की सफलता या असफलता पर अलग से बहस हो सकती है। वर्ल्ड हंगर इंडेक्स में भारत की हालिया कम रैंकिंग ने बहुत विवाद पैदा किया और इस पर भारत की छवि को खराब करने की साजिश रचने के आरोप लगाए गए। भूख व कुपोषण के बीच के सूक्ष्म अंतर के विश्लेषण के बारे में बहुत कुछ कहा गया था।

    कोविड के दौरान प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) शुरू की गई ताकि पहले से ही एनएफएसए द्वारा कवर किए गए प्रत्येक व्यक्ति को मुफ्त अनाज दिया जा सके। इसलिए कोविड के दौरान लागू की गई इस योजना की पहुंच 81 करोड़ भारतीयों तक हुई या पहुंचने वाली है। इसे मई 2020 से छह बार बढ़ाया गया है और अब दिसंबर 2022 में योजना समाप्त होने वाली है। अनुमान है कि इस पर अब तक कुल 4.5 ट्रिलियन रुपये खर्च हो चुके हैं। पीडीएस के समानांतर चलने वाली इस योजना के तहत सरकार ने पिछले दो वर्षों में 5.5 करोड़ टन से अधिक मुफ्त खाद्यान्न वितरित किया है।

    अब पीएमजीकेएवाई को बंद कर दिया गया है और पीडीएस को एक वर्ष के लिए पूरी तरह से मुफ्त कर दिया गया है। लेकिन इससे कई सवाल उठते हैं।
    सबसे पहले सवाल उठता है कि अगर पीडीएस का उपयोग मुफ्त खाद्यान्न वितरित करने के लिए किया जा सकता है तो कोविड के दौरान पीएमजीकेएवाई के नाम से नई योजना शुरू करने के बजाय पीडीएस का उपयोग क्यों नहीं किया गया? वास्तव में कोविड के समय की वही योजना मुफ्त पीडीएस के नाम से जारी है। पीडीएस के लिए राशन कार्ड की आवश्यकता होती है जबकि पीएमजीकेएवाई के लिए नहीं तो निश्चित रूप से कोविड के दौरान पीडीएस में बदलाव किया जा सकता था?

    चूंकि पीडीएस के तहत बहुत सारे गरीब कवर नहीं होते हैं तथा अन्य राज्यों या शहरों में उनके राशन कार्ड स्वीकार किए जाने की उम्मीद नहीं की जाती है इसलिए 'एक राष्ट्र-एक राशन कार्ड' की बात की गई है। विशेष रूप से यह बात प्रवासी श्रमिकों तथा उनके परिवारों के लिए लागू होती है। इसलिए यह योजना कोविड के दौरान शुरू की जा सकती थी तथा पीडीएस को और प्रभावी किया जा सकता था। बेशक, योजना के वर्तमान विस्तार में मुफ्त खाद्यान्न की लागत राज्य सरकार नहीं बल्कि केंद्र द्वारा वहन की जाएगी। दूसरी बात, सरकार अपने स्टॉक से 44 लाख टन अनाज निजी बाजार में क्यों नहीं उतार रही है? नीति आयोग के एक सदस्य ने इसकी जोरदार सिफारिश की है। सरकार का यह कदम निश्चित रूप से खाद्य मूल्य मुद्रास्फीति को कम करेगा।

    अनाज की महंगाई दर 13 तथा गेहूं की महंगाई दर 20 फीसदी पर चल रही है। जब मुफ्त भोजन दिया जाता है तो लाभार्थियों द्वारा लाभ के लिए उसी खाद्यान्न की फिर से बिक्री को सरकार कैसे रोकेगी? उच्च मुद्रास्फीति दर को देखते हुए इस तरह की पुन: बिक्री पूरी तरह से संभव है। क्या बाजार में मौजूद व्यापारियों को शामिल करना बेहतर नहीं होगा? नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कहा था कि 'बाजार में मौजूद व्यापारी किसी भी सरकार की तुलना में खाद्यान्न को अधिक कुशलता तथा तत्परता से उपलब्ध कराते हैं।

    निजी व्यापारियों द्वारा त्वरित प्रवाह की सुविधा के कारण अभावग्रस्त क्षेत्रों में अकाल और कमी को रोका जाता है। तीसरी बात, एक बार मुफ्त भोजन की आदत हो जाने के बाद सरकार कभी पीडीएस की कीमतें कैसे बढ़ा पाएगी? जब तक पीडीएस की कीमतें बाजार मूल्यों के करीब नहीं जाती हैं तब सब्सिडी देना संभव नहीं हो पाएगा। बेशक, अनुदानों की वजह से मुफ्त अनाज मुद्रास्फीति के प्रभाव को रोकने में मदद मिल रही है लेकिन दीर्घकाल में कीमतों को बढ़ाना होगा। अंत में, यदि 81 करोड़ नागरिकों को 42 महीनों के लिए मुफ्त भोजन की जरूरत है तो आधिकारिक गरीबी अनुपात के संदर्भ में इसका क्या अर्थ है? अगर भूख एक बड़ी समस्या नहीं है तो हम इतने बड़े पैमाने पर मुफ्त खाद्यान्न क्यों दे रहे हैं?

    क्या हम 'लंगर राष्ट्र' बनने की राह पर हैं? क्या मुफ्त खाद्यान्न के बजट को स्वास्थ्य और शिक्षा के बजट में शामिल किया जाएगा जिस पर हमारा सार्वजनिक खर्च हमारे समकक्ष देशों की तुलना में बहुत कम है? इस कमी से सिर्फ निजी क्लीनिकों और कोचिंग कक्षाओं को मदद मिलती है। यही समय है जब सभी सामाजिक क्षेत्रों की बजटीय प्राथमिकताओं एवं सामर्थ्य को ध्यान में रखते हुए मुफ्त भोजन कार्यक्रम के बारे में एक समग्र और व्यापक तरीके से सोचा जाना चाहिए।

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